दिल्ली सरकार का 'क्लाउड' फेल: IIT कानपुर का प्रोजेक्ट ठप, करोड़ों रुपए पानी में?
दिल्ली की हवा हर सर्दी में जैसे ज़हर बन जाती है। जब हवा में सांस लेना भी मुश्किल हो गया तो दिल्ली सरकार ने एक नया दांव खेला — क्लाउड सीडिंग प्रोजेक्ट यानी आर्टिफिशियल रेन (Artificial Rain) उम्मीद थी कि IIT कानपुर की मदद से बादलों से बारिश बरसेगी और हवा कुछ साफ होगी। लेकिन नतीजा उलटा निकला क्लाउड कनेक्शन ही टूट गया, और करोड़ों रुपये का यह प्रयोग फिलहाल फेल हो गया।
IIT कानपुर की टीम ने बादलों में रसायन छोड़े, फिर भी नतीजा सूनापन।क्या है क्लाउड सीडिंग तकनीक?
अब आप सोच रहे होंगे, आखिर ये क्लाउड सीडिंग है क्या?
असल में यह एक वैज्ञानिक तकनीक है जिसमें विमान से बादलों में खास रसायन (जैसे सिल्वर आयोडाइड या सोडियम क्लोराइड) छोड़े जाते हैं ताकि नमी वाले बादल बारिश में बदल जाएं।
IIT कानपुर की टीम ने दावा किया था कि यह तरीका दिल्ली की जहरीली हवा से तुरंत राहत देने में मदद करेगा। यानी एक तरह से कृत्रिम इंद्र देवता बुलाने की कोशिश थी लेकिन विज्ञान भी मौसम के मूड पर निर्भर करता है और दिल्ली का मौसम उस वक्त कुछ और ही सोच रहा था।
क्यों फेल हुआ दिल्ली का क्लाउड सीडिंग प्रयोग?
IIT कानपुर के वैज्ञानिकों ने बताया कि क्लाउड सीडिंग फेल होने की सबसे बड़ी वजह थी कम नमी (Low Moisture) दरअसल जिस दिन विमान उड़ाए गए उस दिन बादलों में सिर्फ 15–20% नमी थी जबकि सफल आर्टिफिशियल रेन के लिए 50–60% नमी जरूरी होती है यानी बादल थे पर उनमें बारिश की ताकत नहीं थी तीन बार उड़ानें भरी गईं रसायन भी छोड़े गए लेकिन आसमान से एक बूंद भी नहीं गिरी। और इस पूरे ऑपरेशन में दिल्ली सरकार ने करीब ₹1 से ₹3 करोड़ तक खर्च कर दिया।
करोड़ों रुपए खर्च, लेकिन नतीजा ‘Zero Rain’
दिल्ली सरकार ने इस प्रोजेक्ट को दिल्ली वालों की सांसें बचाने की कोशिश बताया था।
लेकिन जब बारिश नहीं हुई तो यह प्रयोग फेल नहीं बल्कि बहुत महंगा सबक बन गया IIT कानपुर का कहना है कि यह पहला ट्रायल था जिससे डेटा मिला है और अगले प्रयास में सुधार किया जाएगा पर दिल्ली वालों के मन में सवाल तो उठेगा — बारिश नहीं हुई तो क्या करोड़ों रुपए हवा में उड़ गए?
वैज्ञानिकों का कहना — नमी कम थी, इसलिए बादल नहीं बरसे।
क्या यह टेक्नोलॉजी फेल है या टाइमिंग गलत थी?
वैज्ञानिक मानते हैं कि क्लाउड सीडिंग फेल नहीं है बस टाइमिंग गलत थी भारत में मानसून और हवा की दिशा पर निर्भर करता है कि कब बादल तैयार हैं और कब नहीं अगर उसी दिन नमी ज़्यादा होती, तो शायद दिल्ली में आर्टिफिशियल रेन सच में हो जाती इसलिए इसे फुल फेल नहीं कहा जा सकता, लेकिन असफल ट्रायल ज़रूर कहा जा सकता है।
कई पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि क्लाउड सीडिंग सिर्फ तात्कालिक उपाय (temporary solution) है।
जब तक प्रदूषण के असली कारण — जैसे वाहन धुआं औद्योगिक उत्सर्जन और पराली जलाना — पर काम नहीं किया जाएगा तब तक यह बारिश सिर्फ कुछ घंटों की राहत ही दे सकती है यानी ये वैसा ही हुआ जैसे सिर दर्द के लिए सिर्फ पेनकिलर लेना लेकिन वजह का इलाज न करना।
IIT कानपुर का अगला कदम क्या?
IIT कानपुर ने कहा है कि इस प्रोजेक्ट से उन्हें बहुत डेटा मिला है — कि दिल्ली जैसे सूखे और प्रदूषित वातावरण में क्लाउड सीडिंग कब और कैसे काम कर सकती है वे अगले ट्रायल में मौसम विभाग के साथ बेहतर तालमेल बनाकर काम करेंगे अगर सब सही रहा तो नवंबर या दिसंबर में एक और प्रयास किया जा सकता है लेकिन तब तक करोड़ों खर्च की इस कहानी ने सरकार पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
क्लाउड नहीं बरसा पर सबक जरूर मिला
दिल्ली सरकार का क्लाउड सीडिंग प्रयोग फेल जरूर हुआ लेकिन इसने यह तो दिखा दिया कि सिर्फ तकनीक से प्रकृति नहीं झुकेगी बादलों की बारिश के लिए सिर्फ रसायन नहीं बल्कि मौसम की मर्जी भी चाहिए होती है अब देखना ये है कि क्या सरकार और IIT कानपुर मिलकर अगली बार सच में इंद्र देवता को मना पाएंगे — या फिर यह करोड़ों रुपए वाला सपना दोबारा हवा में उड़ जाएगा।
